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फेर में न ब्रह्म के, न आदि के रहौ, अरे!
चर्मचक्षु को अगम्य और बुद्धि के परे।

देखि आँखिन सोँ न सकिहै कोउ काहु प्रकार
औ न मन दौराय पैहै भेद खोजनहार।
उठत जैहैं चले पट पै पट, न ह्वैहै अंत;
मिलत जैहैं परे पट पै पट अपार अनंत।

चलत तारे रहत पूछन जात यह सब नाहिँ।
लेहु एतो जानि बस-हैं चलत या जग माहिँ
सदा जीवन मरण, सुख दुख,शोक और उछाह
कार्य कारण की लरी औ कालचक्र-प्रवाह,

और यह भवधार जो अविराम चलति लखाति,
दूर उद्गम सोँ सरित चलि सिन्धु दिशि ज्यों जाति;
एक पाछे एक उठति तरंग तार लगाय,
एक हैं सब, एक सी पै परति नाहिँ लखाय।

तरणिकर लहि सोइ लुप्त तरंग पुनि कहुँ जाय
घुवा से घन की घटा ह्वै गगन में घहराय,
आर्द्र लै नगशृङ्ग पै पुनि परति धारासार;
सोइ धार तरंग पुनि-नहिं थमत यह व्यापार।