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भूप ने जब सुन्यो कैसे आय पुर के द्वार
धरि उदासी वेष मूँड़ मुड़ाय राजकुमार
रह्यो नीचन द्वार भिक्षा हेतु कर फैलाय,
कोपपूरित छोभ छायो, गयो प्रेम भुलाय।

श्वेत मूँछन ऐंठि बारंबार पीसत दाँत
कढ़्यो बाहर संग लै सामंत कंपित गात;
तमकि तीखे तुरग पै चढ़ि, रोष सहित निहारि,
चल्यो बीथिन बीच बढ़ि जहँ भरे पुरनरनारि।

चकित चितवत रहि गए जे रहे वा मग जात;
कहन पायो काहु सोँ नहिं कोउ एती बात
"अरे! आवत महाराजधिराज देखत नाहिं?"
राजदल कढ़ि गयो खम खम करत एते माहि।

मुर्यो मंदिर पास सो जब पर्यो लखि पुरद्वार,
मिली आवति भूप को निज ओर भीर अपार,
लोग चारों ओर सो चलि मिलत जामें जात,
बढ़ति छिन छिन जाति जो, नहि कतहुँ पंथ लखात।

भिक्षु सो लखि पर्यो जाके संग एती भीर।
गयो कोप हिराय नृप को जबै वा पथ तीर