काहू बिधि जलजंतुन सोँ निज प्राण बचाई,
घोर धूप औ निविड़ निशा की सहि कठिनाई,
अवगाहत जल लह्यों एक मोती अति निर्मल
पानी जासु अमोल, चंद्र सी आभा उज्वल;
सकत जाहि लै केवल कोऊ भूपहि भारी
रीतो करि निज कोष, द्रव्य निज सकल निकारी।
फिरि प्रसन्न मन, लख्योँ ग्राम के गिरि नयनन भरि;
किंतु घोर दुर्भिक्ष देश भर माहिं रह्यो परि।
पथ के कठिन परिश्रम सोँ ह्वै चूर शिथिल अति,
भूख प्यास सोँ विकल, मंद परि रही अंग गति।
पहुँच्योँ काहू भाँति द्वार पै अपने जाई,
सागर को सित रत्न फेंट में कसे छपाई।
एतो श्रम सब जाके हित मैं जाय उठायोँ
ताको परी अचेत द्वार पै अपने पायोँ!
भई कंठगत प्राण, सकति नहिं नयनन खोली,
अन्न बिना मरि रही, कढ़ति नहिं मुख सोँ बोली।
कह्यों धूमि चिल्लाय "अन्न कछु होय जासु घर
एक जीव हित धरौँ राज को मोल तासु कर।
लक्ष्मी के मुख माहिं अन्न जो थोरो नावै
चंद्रप्रभ यह रत्न आय मोसों लै जावै।"
अपनो अंतिम संचय लै इक पहुँच्यो सुनि यह।
तीन सेर बाजरो तौलि लै गयो रत्न वह
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