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पै जो तिनके आगे आवत धरि पथतीर
ऐसी गौरवभरी तासु गति अति गंभीर,
फूटति ऐसी दिव्य दीप्ति कढ़ि चारों ओर,
ऐसो मृदुल पुनीत भाव दरसत दृगकोर
भिक्षा लै जो देन बढ़त दोउ हाथ उठाय
चित्र लिखे से चकित चाहि मुख रहत ठगाय।
कोऊ कोऊ धाय परत पायँन पै जाय;
फिरत लेन कछु और दीनता पै पछिताय।
धीरे धीरे लगे नारि, नर, बालक संग
कानाफूसी करत परस्पर है कै दंग-
"कहौ कौन यह? कहौ, कछू आवत मन माहिँ?
ऋषि तो ऐसो परो लखाई अब लौँ नाहिँ।"
चलत चलत सो पहुँच्यो ज्योँ मंडप नियराय
खुल्यो पाटपट, यशोधरा चट पहुँची धाय।
ठाढ़ी पथ पै भई अमल मुखचंद्र उघारि
"हे स्वामी! हे आर्यपुत्र!" यह उठी पुकारि।
भरे विलोचन वारि, जोरि कर, सिसकि अधीर
देखत देखत परी पायँ पै पथ के तीर।



जब दीक्षित ह्वै चुकी धर्म में राजवधू वह
एक शिष्य ने जाय करी प्रभु सोँ शंका यह-