'यश' नामक पुनि एक सेठ काशी को भारी
बुद्ध शरण गहि भयो प्रव्रज्या को अधिकारी।
चार मित्र सुनि तासु भए पुनि भिक्षुक आई।
पुरजन और पचास प्रव्रज्या प्रभु सोँ पाई।
परी कान में जहाँ जहाँ बानी प्रभु केरी
उपजी तहँ तहँ नवयुग की सी शांति घनेरी;
ज्योँ पावस की धार परत जब पटपर ऊपर
नव तृण अंकुर लहलहाय फूटत अति सुंदर।
पठयो प्रभु इन साठ भिक्षुकन को प्रचार हित
पाय तिन्हैं संयमी, विरागी और धीर चित।
इसिपत्तन मृगदाव माहिँ यह संघ बनाई
गए राजगृह पास यष्टिवन और सिधाई।
कछुक दिनन लौँ रहे तहाँ उपदेश सुनावत।
बिंबसार नृप, पुरजन परिजन लौँ सब यावत्
भए बुद्ध की शरण प्राप्त सब मोह बिहाई
धर्म, शील, संयम, निरोध की शिक्षा पाई।
कुश लै के संकल्प दियो करि भूपति ने तब
परम सुहावन रम्य वेणुवन 'संघ' हेतु सब,
जामें सुंदर गुहा सरित, सर, कुंज सुहाए।
शिला तहाँ गड़वाय नृपति ये वाक्य खुदाए-
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