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निकसिहै संवाद जो यह सत्य, कहियो जाय,
अवसि फाँड़न माहिं दैहौँ स्वर्ण रत्न भराय।
और तुमहूँ आइयो सँग लेन को उपहार-
है सकै पै नाहिँ सो आनंद के अनुसार।"

चले दोऊ बणिक दासिन संग, आज्ञा पाय
कुँवर के वा रंगभवन प्रवेश कीनो जाय।
चलत कंचनकलित पथ पै धरत धीमे पावँ।
राजवैभव निरखि लोचन चकित हैं सब ठाएँ ।

कनकचित्रित पट परे जहँ दोउ पहुँचे जाय।
क्षीण, कंपित, मधुर स्वर यह परयो कानन आय-
"सेठ! आवत दूर तें हौ; कतहुँ राजकुमार
परे तुमको देखि, ये सब कहति बारंबार।

करी पूजा तासु तुमने, त्यागि जो भवभार
शुद्ध बुद्ध त्रिलोकपूजित है करत उद्धार।
सुन्यो अब या ओर आवत; कहौ, यदि यह होय
परम प्रिय या राजकुल के होयही तुम दोय।"

बोल्यो सीस नवाय त्रपुष "हे देवि, हमारी!
आवत हैं इन नयनन सोँ हम प्रभुहि निहारी।