< br>देख कर उर्दूभाषा का इतिहास लिखनेवाले उर्दू-लेखकों को यह भ्रम हुआ कि उर्दू अर्थात् खड़ी बोली ब्रजभाषा से निकल पड़ी । पर असल में व्रजभाषा का मेल परंपरागत काव्यभाषा के प्रभाव के कारण था। इस बढ़ती हुई गजलबाजी के जमाने में और खास दिल्ली में अब भी घरेलू गीतों, कहावतों आदि की भाषा कुछ और ही है, उसमें वह खड़ापन या अक्खड़पन नहीं है। खुसरो ही तक बात ख़तम नहीं हुई, उर्दू के पुराने शायर बहुत दिनों तक 'नैन' 'जगत' 'साँ' आदि रसपरिपुष्ट शब्द लाते रहे। पीछे के शायरों ने प्रयत्नपूर्वक देश की परंपरागत काव्यभाषा से अपना पीछा छुड़ाया और खड़ी बाली को अनन्य भाव से ग्रहण कर और उसे अरब और फारस की पोशाक पहना कर अपनी साहित्य-भाषा एकबारगी अलग कर ली। कहने का तात्पर्य यह कि पुराने उर्दू-कवियां में ब्रज- भाषा का पुट केवल यह बतलाता है कि उर्दू कविता पहले स्वभावतः देश की काव्यभाषा का सहारा ले कर उठी; फिर जब टांगों में बल पाया तब किनार हो गई, यह नहीं कि खड़ी बोली का अस्तित्व उस समय था ही नहीं और दिल्ली मेरठ आदि में भी ब्रजभाषा बोली जाती थी। प्राकृत के ग्रंथों में अपभ्रंश के जो नमूने मिलते हैं वे ठीक बोलचाल की भाषा में नहीं हैं, कविपरंपरासिद्ध भाषा में हैं इसका निश्चय खुसरो के पद्यों से हो जाता है। रणथंभौर के हम्मीरदेव अलाउद्दीन के समय में थे जिसके यहाँ खुसरो
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