पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१६७)

ज्योतिहीन, लक्ष्यहीन आज सोइ घूमत हैं,
लखत न नेक ऋतुराज की छटा ललाम।
पलकै रही हैं ढरि, उघरत नाहिं पूरी,
अधखुली पूतरी पै बरुनी परी हैं श्याम।

एक कर माहिँ मोतीजरो कटिबंध सोइ
जाहि तजि कुँवर निकसि गयो रैन वहि।
हाय! विकराल सोइ जामिनि जननि भई
केते दुखभरे दिवसन की, न जात कहि।
गाढ़ो प्रेम एतो नाहिँ निठुर कबहुँ भयो
साँचे प्रेम प्रति ऐसे कहुँ जग बीच यहि।
एक बात भई यासोँ, जीवन लौँ याही बँधि
मिति यहि प्रेम की हमारे नाहिँ गई रहि।

दूजे कर बीच कर सुन्दर परम निज
बालक को, जासु नाम राहुल धरोगयो,
थाती रूप छाँड़ि के कुमार चलि गयो जाहि,
बढ़ि के जो आज सात वर्ष एक को भयो।
चंचल स्वभावबस डोलन लग्यो है घूमि
जननी के पास इत उत मोद सोँ छयो।
विभव-विकास पुष्पहास कुसुमाकर को
हेरि हेरि होत है हुलास चित्त में नयो।