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देखो यह बासर बसंत को, रसाल फूलि
अंग न समात मंजु मंजरीन सोँ भरे।
सारी धरा साजे ऋतुराज साज सोहति है,
सुमन सहित पात चीकने हरे हरे।
कुँवरि उदास बैठी बाटिका के बीच जाय
कंजपुट-कलित सरिततीर झाँवरे।
दर्पण सी धार में बिलोके बहु बार जहाँ
ओठन पै ओठ, पाणिपाश कंठ में परे।

आँसुन पलक भारी, कोमल कपोल छीन,
विरह की पीर अधरान पै लखाति है।
चपि रही चीकने चिकुर की चमक चारु,
बेणी बीच बँधि नेकु नाहिँ बगराति है।
आभरनहीन पीरी देह पै है सेत सारी,
खचित न जापै कहूँ हेमनगपाँति है।
पाय पिय बोल गति हरति जो हंसन की
चरन धरत सोइ आज थहराति है।

स्नेहदीप सरिस नवल जिन नैनन की
कालिमा सोँ फूटति रही है धुति अभिराम-
शर्वरी के शांतिपट बीच ह्वै जगति मनो
दिवस की ज्योति कमनीय याही सुखधाम-