हे गृहकार! फेरि अब सकिहै तू नहिँ भवन उठाई। साज बंद सब तोरि धौरहर तेरो दियोँ ढहाई। संस्कार सोँ रहित सर्वथा चित्त भयो अब मेरो। तृष्णा को क्षय भयो, मिट्यो यह जन्म जन्म को फेरो।"