पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१६३)

बैठे भुजंगे डार पै कहुँ रहे पूँछ हिलाय हैं,
पै आज झपटत नेकु नहिँ तितलीन पै दरसायँ हैं,
या फूल ते वा फूल पै जो चपल गति सोँ धावतीं,
सित, पीत, नील, सुरंग, चित्रित पंख को फरकावतीँ।

धरि दिव्य तेज दिनेश सोँ बढ़ि नाशहित भवभार के,
लहि अमित विजय-विभूति जीवन हित सकल संसार के।
वा बोधितरु तर ध्यान में भगवान हैं बैठे अबै
पै तासु आत्मप्रभाव परस्यो मनुज पशु पंछिन सबै।

अब बोधितरु तर सोँ उठे हरखाय कै
प्रभु दिव्य तेज, अनंत शक्तिहि पाय कै।
यह बोलि वाणी उठे अति ऊँचे स्वरै,
सब देश में सब काल मे जो सुनि परै-

"अनेक जाति संसारं संधाविसमनिब्बसं।
गहकारकं गवसंतो दुःखजाति पुनः पुनः।
गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि।
सब्बा वे फासका भग्गा, गहकूटं विसंकितं
बिसंखारगतं चित्तं, तण्हानं खयमझगा।"

"गहत अनेक जन्म भव के दुख भोगत बहु चलि आयोँ।
खोजत रह्यों याहि गृहकारहिँ, आज हेरि हौँ पायोँ।