पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१६२)

या घोर दुख को अंत योँ सुख भए बिनु रहि जायहै
ह्वै सकत ऐसो नाहिँ;' आगम परत कछुक जनाय है।

छायो उछाह अपार यदपि न कोउ जानत का भयो।
सुनसान बंजर बीच हू संगीत को सुर भरि गयो।
आगम तथागत को निरखि निज मुक्ति-आस बँधाय कै
मिलि भूत, प्रेत, पिशाच गावत पवन में हरखाय कै।

'जगकाज पूरा ह्वै गयो' नभ देववाणी यह भई;
अति चकित पुरजन बीच पंडित खड़े बीथिन मे कई
लखि स्वर्णज्योति-प्रवाह सो जो गगन बोरत जात है,
योँ कहत "भाई! भइ अलौकिक अवसि कोऊ बात है।"

बन, ग्राम के सब जीव बैर बिहाय बिहरत लखि परे।
जहँ दूध बाघिन प्यावती तहँ चित्रमृग सोहत खरे।
वृक मेष मेल मिलाप साँ हैं चलत एकहि बाट पै।
गो सिंह पानी पियत हैँ मिलि जाय एकहि घाट पै।

भितराय गरल भुजंग मणिधर फन रहे लहराय हैं;
बसि पास चोँचन सोँ गरुड़ निज पंख रहे खुजाय हैं।
कढ़ि सामने सोँ जात बाजन के लवा, कछु भय नहीँ।
बैठे मगन बक ध्यान में, बहु मीन खेलत हैं वहीँ।