बसह (वृषभ), नाह (नाथ), ईछन (ईक्षण), लोय ( लोक,
लोग ), लोयन ( लोचन ) आदि प्राकृत के शब्द सूर, तुलसी,
बिहारी आदि के ग्रंथों में इधर उधर मिलते हैं। इसे कहते हैं
परंपरा का निर्वाह!
देश की बोलचाल की चलती भाषा से अपना रूप कुछ
भिन्न रख कर किस प्रकार काव्य की भाषा अपनी शान बनाए
रही और स्वाभाविक भाषा किस प्रकार दबी रही यह पहले
कहा जा चुका है। इसी बीच में देश में मुसलमानों का
आना हुआ जो ज़रा ज़बान के तेज़ थे। उस समय तक
दिल्ली की बोली (खड़ी) साहित्य या काव्य की भाषा नहीं
थी। और प्रादेशिक बोलियों के समान वह भी एक कोने
में पड़ी थी।
पठानों की राजधानी जब दिल्ली हुई तब
मुसलमानों को वहाँ की बोली ग्रहण करनी पड़ी। खुसरो ने
उस बोली में कुछ पद्य कहे पर परंपरागत काव्यभाषा
(ब्रजभाषा) की झलक उनमें बराबर बनी रही। दो एक
उदाहरण लीजिए-
क) अति सुंदर जग चाहै जाको । मैं भी देख भुलानी वाको ।
देख रूप भाया.जो टोना । एसखि! साजन, ना सखि ! सोना।
(ख) टट्टी तोड़ के घर में पाया । अरतन बरतन सब सरकाया।
पीगया दे गया बुत्ता। ए सखि ! साजन, ना सखि कुत्ता।
पहले पद्य में ब्रजभाषा का पूरा ढाँचा है; दूसरा पद्य
खासी खड़ी बोली में है। खुसरो में व्रजभाषा का यही पुट
खागया,
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