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छुटै जब लौँ नाहिँ सत्ता और कर्मविकार,
जाति, वृद्धि, विनाश, सुख, दुख, राग, द्वेष अपार

सुखसमन्वित शोक सब औ दु:खमय आनंद
छुटत नहिँ, नहिँ होत जब लौँ ज्ञान 'ये हैं फंद।'
किंतु जानत जो 'अविद्या के सबै ये जाल'
त्यागि जीवनमोह पावत मोक्ष सो तत्काल।

व्यापक ताकी दृष्टि होति सो लखत आप तब
याहि 'अविद्या' सोँ जनमत हैं 'संस्कार' सब,
'संस्कार' सोँ उपजत हैं 'विज्ञान' घनेरे
'नामरूप' उत्पन्न होत जिनसोँ बहुतेरे।
'नामरूप' सोँ 'षडायतन' उपजत जाको लहि
जीव विवश है दर्पण सम बहु दृश्य रहत गहि।
'षडायतन' सौँ फेरि 'वेदना' उद्भव पावति
जो झूठे सुख औ दारुण दुख बहु दरसावति।
यहै वेदना वा 'तृष्णा' की जननि पुरानी
भवसागर में घुसत जात जाके वश प्रानी;
चल तरंग बिच खारी ताके रहत टिकाई
सुख संपति, बहु साध, मान औ कीर्त्ति, बड़ाई,
प्रीति, विजय, अधिकार, वसन सुंदर, बहु व्यंजन,
कुलगौरव-अभिमान, भवन ऊँचे मनरंजन,