ऊँचे नीचे चारो दिशि प्रभु डार्यो छानी;
नीलराशि सो लखि अनंत मति रही भुलानी।
सब रूपन सोँ परे, लोक लोकन सोँ न्यारे,
और जगत् की प्राणशक्ति सोँ दूर किनारे,
अलख भाव सोँ चलत नियत आदेश सनातन,
करत तिमिर को जो प्रकाश औ जड़ को चेतन,
करत शुन्य को पूर्ण, घटित अघटित को जो है
औ सुंदर को औरहु सुंदर करि जग मोहै।
या अटल आदेश मेँ कहुँ शब्द आखर नाहिँ।
नाहिँ आज्ञा करनहारो कोउ या विधि माहिँ।
सकल देवन सोँ परे यह लसत नित्य विधान
अटल और अकथ्य, सब सोँ प्रबल और महान्।
शक्ति यह जग रचति, नासति, रचति बारंबार;
करति विविध विधान सब निज धर्मविधि अनुसार।
सर्गमुख गति माहिँ जाके त्रिगुण हैं बिलगात;
रजस सोँ ह्वै सत्व की दिशि लक्ष्य जासु लखात।
भले वेई चलें जे या शक्तिगति अनुकूल।
चलैं जे विपरीत वेई करत भारी भूल।
करत कीटहु भलो अपनो जातिधर्म पुराय;
बाज नीको करत गेदन हित लवा लै जाय।
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