भई 'अभिज्ञा' प्राप्त तीसरे पहर प्रभुहि पुनि,
पायो 'आश्रय ज्ञान' तबै भगवान् शाक्य मुनि।
लोक लोक में दृष्टि तासु जब पहुँची जाई
हस्तामलक समान विश्व सब पर्यो लखाई।
लखे भुवन पै भुवन, सूर्य्य पै सूर्य्य करोरन,
बँधी चाल सोँ घूमत लीने अपने ग्रहगन
ज्योँ हीरक के द्वीप नीलमणि-अंबुधि माहीं,
ओर छोर नहिँ जासु, थाह कहुँ जाकी नाहीं,
बढ़त घटत नहिं कबहुँ, क्षुब्ध जो रहत निरंतर,
जामें रूपतरंग उठत रहि रहि छन छन पर।
अमित प्रभाकर पिंड किए प्रभु योँ अवलोकन,
अलख सूत्र सोँ बाँधि नचावत जो बहु लोकन,
करत परिक्रम आपहु अपने सोँ बढ़ि केरी,
सोउ अपने सोँ महज्ज्योति की डारत फेरी।
परंपरा यह जगी ज्योति की प्रभुहि लखानी
अमित, अखंड, न अंत सकत कहुँ जाको मानी।
लगत केंद्र सो जो सोऊ है डारत फेरे;
बढ़त चक्र पै चक्र गए या विधि बहुतेरे।
दिव्य दृष्टि सोँ देख्यो प्रभु लोकन को यावत्
अपनो अपनो कालचक्र जो घूमि पुरावत।
महाकल्प वा कल्प आदि भर भोग पुराई,
ज्योतिहीन ह्वै, छीजि, अंत में जात बिलाई।
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