पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१५२)

अभिसंबोधन


बीतत पहिलो पहर मार की सेना भागी।
गई शांति अति छाय, वायु मृदु डोलन लागी।
प्रभु ने 'सम्यक् दृष्टि' प्रथम यामहि में पाई,
सकल चराचर को जासौँ गति परी लखाई।
'पूर्वानुस्मृति ज्ञान' दूसरे पहर पाय पुनि
जातिस्मर ह्वै गए पूर्ण भगवान् शाक्यमुनि।
तुरत सहस्रन जन्मन की सुधि तिनको आई,
जब जब जनमे जहाँ जहाँ जिन जोनिन जाई।
ज्यों फिरि पाछे कोउ निहारत दीठि पसारी
बहुत दूर चलि पहुँचि शिखर पै गिरि के भारी,
देखत पथ में परे मोहिँ कैसे कैसे थल!
ऊँचे नीचे दूह, खोह, नारे औ दलदल;
बीहड़ बन घन, देखि परत जो सिमटे ऐसे
महि अंचल पै टँकी हरी चकती है जैसे;
गहरे गहरे गर्त्त गर्यो जिन माहिं पसीनो,
जिनसोँ निकसन हेतु साँस भरि भरि श्रम कीनो;
ऊँचे अगम कगार छुटी झांई जहँ चढ़तहि
खिसलत खिसलत पाँव गयो बहु बार जहाँ रहि
हरी हरी दूबन सोँ छाए पटपर सुंदर;
निर्मल निर्भर, दरी और अति सुभग सरोवर: