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परम घिनौनी बढ़ी डोकरी बूढ़ी सो जब
अंधकार अति घोर छाय सब ओर गयो तब।
विचले भूधर, उठी प्रभंजन सोँ हिलि यामिनि,
छाँड़ी मूसलधार दरकि घन, दमकी दामिनि।
भीषण उल्कापात बीच महि काँपी सारी,
खुले घाव पै ताके मानो परी अँगारी।
वा अँधियारी माहिं भयो पंखन को फरफर;
चीत्कार सुनि पर्यो, रूप लखि परे भयंकर।
प्रेतलोक तें दल की दल चढ़ि सेना आई;
प्रभुहि डिगावन हेतु रही सो ठट्ट लगाई।

किन्तु डिगे नहिं नेकु बुद्ध भगवान हमारे।
ज्यों के त्यों तहँ रहे अचल दृढ़ आसन मारे।
लसत धर्म सोँ रक्षित चारो दिशि सोँ प्रभुवर,
खांई, कोटन बीच बसत ज्यों निडर कोउ नर।
बोधिद्रुम हू अचल रह्यो वा अंधड़ माहीं;
हिल्यो न एको पात, ढरे हिमबिंदुहु नाहीं।
बाहर सब उत्पात विघ्न ह्वै रहे भयंकर
किन्तु शांति अति छाय रही ताकी छाया तर!