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रुचिर रूप यशोधरा को धरे पहुँची आय,
सजल नयनन में बिरह को भाव मृदु दरसाय
ललकि दोऊ भुजन को भगवान् ओर पसारि
मंद मृदु स्वर सहित बोली, भरि उसास निहारि-

"कुँवर मेरे! मरति हौं मैं बिनु तिहारे, हाय!
स्वर्गसुख सोँ कहाँ, प्यारे! सकत हो तुम पाय
लहत जो रसधाम में वा रोहिणी के तीर,
जहँ पहार समान दिन मैं काटि रही अधीर।

चलो फिरि, पिय! भवन, परसौ अधर मेरे आय,
फेरि अपने अंक में इक बेर लेहु लगाय।
भूलि झूठे स्वप्न में तुम रहे सब कछु खोय।
जाहि चाहत रहे एतो, लखौ, हौँ मैं सोय।"

कह्यो प्रभु "हे असत् छाया! बस न आगे और।
व्यर्थ तेरे यत्न और उपाय हैं या ठौर।
देत हौँ नहिँ शाप वा प्रिय रूप को करि मान
कामरूपिनि! जाहि धरि तू हरन आई ज्ञान।

किंतु जैसी तू, जगत् को दृश्य सब दरसाय।
कढ़ी जहँ सोँ भागु वाही शून्य मेँ मिल जाय।"