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मैं हू भाई एक और जैसे सब तेरे,
पहले राजकुमार रह्यों, अब डारत फेरे।
निशि दिन खोजत फिरौँ ज्योति जो कतहूँ जागति,
लहै कोउ जो ताहि, मिटै जग-अंधकार अति।
पैहौँ मैँ सो ज्योति होत आभास घनेरो;
तू ने तन मन गिरत सँभार्यो भगिनी! मेरो।
अति पुनीत संजीवन पायस तू यह लाई;
अपने जतनन ऐसी जीवनशक्ति जुटाई,
बहु जीवन बिच होति गई जो बटुरति, बाढति;
लहत जन्म बहु गहत जात ज्योँ जीव उच्च गति।
जीवन मेँ आनंद कहा साँचहु तू पावति?
गृहसुख मैं निज मग्न और कछु मनहिँ न लावति?"

सुनि सुजाता दियो उत्तर "सुनौ, हे भगवान्!
नारि को यह हृदय छोटो, नाहिँ जानत आन।
नाहिँ भीजति भूमि जेतो मेंह थोरो पाय
नलिनपुट भरि जात है, खिलि उठत है लहराय।

चहौं बस सौभाग्यरवि की रहौँ आभा हेरि
अमल पतिमुख-कमल में, मुसकान में शिशु केरि।
यहै जीवन को हमारे, नाथ! है मधुकाल;
मगन राखत मोहिँ तो घरबार को जंजाल।