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बहुत कसे टुटि जात तार, लय उखरि जाप्ति मझधार।
ढीलो तार न बोल निकासत, रंग होत सब छार।

बाँसुरी औ बीन पै या भाँति सुंदरि गाय
जाति वा वनखंड भीतर चूनरी फहराय;
मनौ पंछी कोउ चित्रित पंख को फरकाय
खोलि निज कल कंठ घाटिन बीच विचरत जाय।

रह्यो सुंदरि को न कछु या बात को अनुमान
कान मैँ वा सिद्ध के है परति ताकी तान
मार्ग मेँ अश्वत्थ तर जो बसत धारे ध्यान।
कितु पलक उघारि बोले बुद्ध सुनि सो गान-

मूढ़ हू तें मूढ़ ते हैँ सकत नर कछु जानि।
सूक्ष्म जीवनतार को मैं रह्यों अतिशय तानि,
समुझि यह संगीत की मृदु निकसिहै झनकार
गूँजि करिहै जो जगत् में मनुज को उद्धार।

सत्य अब जब लखि परत भइ नयनज्योति मलीन,
अधिक बल जब चाहिए तब कै रह्यो तन छीन।
प्राप्त साधन जो मनुज को, रह्योँ सोउ बहाय।
जायहौँ या भाँति मरि, कछु करि न सकिहौँ, हाय!