थक्कइ (बँगला)। गाछे = वृक्ष
( विहारी.
मैथिली, बँगला )।
सारांश यह कि अपभ्रंश के नाम से जिस भाषा के पद्य
हेमचंद्र के व्याकरण में तथा कुमारपाल प्रतिबाध, प्रबंध
चितामणि आदि काव्यों में मिलते हैं वह ज्यों की त्यां किसी
एक स्थान की बोलचाल की भाषा नहीं है कवि-समय-सिद्ध मामा-
न्य भाषा है। यह भाषा सामान्य दो प्रकार से बनाई गई-
(१) उदारतापूर्वक और और प्रदेशों की बोलियाँ (अपभ्रंशों)
को भी कुछ स्थान देने से।
ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं वे इस बात के स्पष्ट
प्रमाण हैं। यदि हम कई स्थानों में प्रचलित शब्दों और रूपों
को समेट कर एक भाषा खड़ी करे तो उसमें कृत्रिमता का
आभास रहेगा। शब्दों में से कुछ कहीं और कुछ कहीं बोले
जाते हो तो भी एक ही प्रदेश में सब कंन बोले जाने के कारण
सब जगह वह कुछ न कुछ कृत्रिम लगेगी-यहां तक कि उस
स्थान पर भी जहाँ का उसका ढांचा होगा । आज भी यदि
हम पंजाब, व्रज, अवध, विहार इन सब स्थानों की चलती
बोलियों को समेट कर ही-बिना किसी पुरानी भाषा का पुट
दिए-भाषा का एक हौवा खड़ा करें तो वह प्रगल्भता और
प्रचुरता में संस्कृत और अरबी से टक्कर लेने लगे। इस प्रकार
एक व्यापक और प्रकांड भाषा तो बन जायगी पर उसमें जीवनी
शक्ति उतनी न होगी।
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