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पंचवर्गी भितु सुनि यह पास प्रभु के आय
बहुत चाह्यो रोकिबो बहु भाँति याँ समझाय-
"बात है सब लिखी क्यों नहिं पढ़त शास्त्र उठाय!
सुनौ, श्रुति के ज्ञान सोँ बढ़ि सकें मुनिहुँ न जाय।
ज्ञान भाखत जो हमारो ज्ञानकांड महान्
क्षुद्र मानुष पायहै बढ़ि कहाँ तासोँ ज्ञान?
ब्रह्म निष्क्रिय, सर्वगत, सत् और चित्, आनंद,
अपरिणामी, निर्विकार, निरीह, अज, निर्द्वंद।
कहत श्रुति योँ, राग तजि औ कर्म को करि नाश,
अहंकार विमुक्त है, निरुपाधि स्वयंप्रकाश,
जीव बंधन काटि क्रमशः ब्रह्म में मिलि जात।
ब्रह्मविद्या पढ़ौ तो तुम जानिहौ सब बात,
असत् तें सत् ओर कैसे जीव यह चलि जाय
लहत पुनि चिर शांति कैसे विषयद्वंद्व विहाय।"
सुनी तिन की बात प्रभु चुपचाप सीस नवाय
भयो पै परितोष नहिं, चट दिए पाँव बढ़ाय।