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देय सरसोँ लाय ऐसी, उठे तो तव बाल,
कही मोसोँ रही प्रभुवर बात यह वा काल।"
कह्यो मृदु मुसुकाय प्रभु "हे किसा गोतमि! तोहि
कही मैंने रही ऐसी बात, सुधि है मोहिं।

मिली सरसों तोहि ऐसी कतहुँ देय बताय।"
बिलखि बोली नारि सो भगवान के गहि पाय

"मरे शिशुहि गर बाँधि फिरी मैं सकल ग्राम बन,
द्वार द्वार पै माँगी सरसोँ धीर धारि मन।
माँगति जासोँ जाय देत सो मोहिं बुलाई
दीनन पै तो दया दीन जन की चलि आई।
पै जब पूछति 'मरयो कबहुँ कोऊ तुम्हरे घर-
मातु, पिता, पति, पुत्र, बंधु, भगिनी वा देवर?'
कहत चकित ह्वै 'बहिन! कहा यह कहति अजानी,
मरे न जाने किते, जियत तो थोरे प्रानी।'
सरसोँ तिनकी फेरि जाय जाँचति पुनि औरन;
पै सब याही रूप कहत कछु उदासीन मन
'सरसोँ तो है किन्तु मरो है मेरो भाई।'
'सरसों है पै पति दीनो चलि मोहिं बिहाई।'
'सरसोँ है पै बोयो जाने सो है नाहीं,
काटन को जब समय, गयो चलि सुरपुर माहीं।'