खरी दुपहरी में बैठत प्रभु ध्यान लगाए।
सन सन करती धरा, धूप धधकति दव लाए।
गन गन नाचत परत सकल बनखंड लखाई,
पै प्रभु जानत नाहिँ जात कित दिवस बिहाई।
ढरत दीप्त अंगारबिंब सम गिरितट दिनकर;
पसरति आभा अरुण खेत औ खरियानन पर।
जुगजुगात पुनि जहँ तहँ निकसत नभ में तारे।
मिलि कै मंगलवाद्य उठत बजि पुर के सारे।
छाय जाति पुनि निशा, जीव जगके सब सोवत।
केवल कौशिक रटत कहूँ, कहुँ जंबुक रोवत।
पै प्रभु ध्याननिमग्न रहत हैँ आसन धारे,
या जीवन को तत्व कहा सोचत मन मारे।
आधीराति निखंड होति, जग थिरता धारत।
केवल हिंसक पशु कढ़ि कै कहुँ फिरत पुकारत-
ज्यों मन के अज्ञानविपिन भय द्वेष पुकारत,
काम क्रोध मद लोभ घोर विचरत, नहिँ हारत।
सोवत पछिले पहर घरी तेती ही प्रभुवर
अष्टमांश पथ जेती में कढ़ि जात निशाकर।
पौ फटिबे के प्रथम परत उठि प्रभु पुनि प्रति दिन,
फटिक-शिला पै आय रहत ठाढ़े नित बहु छिन।
सोवति वसुधा को नयनन भरि नीर निहारत,
सब जीवन की दशा देखि, गुनि हिय में हारत।
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