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जहाँ रहत मन बँधो, तत्व ढिग पहुँचि न पावत।
अब मैं खोजन जात लोक हित ताहि यथावत्।"

कह्यो सारथी "हाय, कुँवर! यह कहा करत अब?
कहे वचन जो गणक कहा झूठे ह्वैहैं सब?
शुद्धोदनसुत करिहै नाना देशन शासन,
राजन को ह्वै महाराज बसिहै सिंहासन।
कहा छाँड़ि धनधान्यपूर्ण धरती सो दैहै?
तजि सब भिक्षापात्र कहा अपने कर लैहै?
जाके ऐसो स्वर्ग सरिस रसधाम मनोहर
भटकत फिरिहै कहा अकेलो सूने पथ पर?"

उत्तर दीना कुँवर "इतै आयाँ याही हित,
सिंहासन हित नाहिं, सखा! यह लेहु धारि चित।
चाहत हौं मैं राज्य सकल राज्यन सोँ भारी।
लाओ कंथक तुरत, होहुँ वाको अधिकारी।"

बोल्यो छंदक "कृपानाथ! हम कैसे रहिहैं?
महाराज, तव पिता, शोक यह कैसे सहिहैं?
पुनि जाके तुम जीवनधन वाको का ह्वैहै?
करिहौ कहा सहाय जबै जीवन नसि जैहैं?"

उत्तर दीनो कुँवर "सखा! यह प्रेम न साँचो
जो निज आनँद हेतु प्रेम निश्चय सो काँचो।