कढ़्यो मंद पग धरत कुँवर वा निशि में रहि रहि,
तारक रूपी नयन नेह सोँ रहे जासु चहि।
शीतल श्वाससमीर आय चूम्यो फहरत पट,
जोह्यो नाहिँ प्रभात सुमन खोल्यो सौरभ चट।
हिमगिरि सोँ लै सिंधु ताइँ वसुधा लहरानी,
नव आशा सोँ तासु हृदय उमग्यो कछु जानी।
मधुर दिव्य संगीत गगन मेँ पर्यो सुनाई।
दमकि उठौँ सब दिशा, देवगण सोँ जो छाई।
गणन लिए निज संग, मढ़े रत्नन सोँ भारी
चारो दिक्पति आय द्वार पै बारी बारी
ताकत हैं कर जोरि कुँवर को मुख, जो ठाढ़ो
सजल नयन नभ ओर किए, हित धरि हिय गाढ़ो
बाहर आयो कुँवर, पुकार्यो "छंदक, छंदक!
उठौ, हमारो अश्व अबै कसि लाओ कंथक।"
फाटक ही पै रह्यो सारथी छंदक सोवत;
धीरे सोँ उठि कह्यो कुँवर मुख जोवत जोवत-
"कहा कहत हौ, नाथ, राति में या अँधियारी
जैहौ तुम कित, कुँवर! होत विस्मय मोहिं भारी।"
"बोलौ धीमे, लाओ मेरे चपल तुषारहि;
घरी पहुँचि सो गई तजौँ या कारागारहि,
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