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एक श्वेत वृष अति विशालवपु पर्यो लखाई
घूमत बीथिन बीच विपुल निज शृंग उठाई,
उज्वल निर्मल रत्न एक धारे मस्तक पर
दमकत जो ज्यों परो टूटि तारो अति द्युतिधर,
अथवा जैसो नागराज को मणि द्युतिवारो
जासोँ होत पताल बीच दिन को उजियारो।
मंद मंद पग धरत गलिन में चल्यो वृषभ बढ़ि
नगर द्वार की ओर; रोकि नहिँ सक्यो कोउ कढ़ि।
भई इंद्रमंदिर सोँ वाणी यह विषादमय-
"जो न रोकिहौ याहि नगरश्री नसिहै निश्चय।"
जब कोऊ नहिँ रोकिहौ सक्यो तब मैं बिलखाई,
ताके गर भुजपाश डारि मैं लियो दबाई।
आज्ञा दीनी द्वार बंद करिबे की मैं पुनि;
पै सो कंध हिलाय, गर्व सों करि भीषण धुनि
तुरत छूटि मम अंक बीच सोँ धायो हँकरत,
तोरण-अर्गल तोरि भज्यो पहरुन को कचरत।
दूजे अद्भुत स्वप्न माहिँ मैं लख्योँ चारि जन,
नयनन सोँ कढ़ि रह्यो तेज जिनके अति छन छन,
मानो लोकप चलि सुमेर तें भू पै आए,
देवन को लै संग रहे या पुर में छाए।
जहाँ द्वार के निकट इंद्र की ध्वजा पुरानी
गिरी टूटि अरराय, कँपी सिगरी रजधानी।