(१४) महिवीढह सचराचरह जिण सिर दिन्हा पाय।
(१५) अड़विहि पत्ती नइहि जलु तो वि न बूहा हत्थ।
(१६) एक्के दुन्नय जे कया तेहि नीहरिय घरस्स।
(१७) कुलु कलंकिउ,मलिउ माहप्पु,मलिणीकय सयणमुह। दिन्न हत्थु नियगुण कडप्पह जगु ज्झ- पियो अवजसिण।
(१८) भुवणि वसंत पयट्ठ।
(१९) मह सग्गगयस्स वि पिठ्ठि लग्ग।
(२०) भल्ला हुआ जु मारिमा वहिणि महारा कंतु।
ऊपर के अवतरणों के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं- क्रिया के भूतकालिक रूप-'भरिया'(खड़ी बोली और
(१४) पृथ्वी की पीठ पर जिसने सचराचर के सिर पर पांव दिया।
(१५) अटवी (=जंगल) की पत्ती,नदी का जल (था) तो भी हाथ न हिलाया।
(१६) एक दुर्नय (अनीति) जो किया उससे निकली घर से।
(१७) कुल कलंकित किया,माहाम्य मल दिया,सजनों का मुँह मलिन किया,अपने गुण कलाप को हाथ दिया (धक्का देकर निकाल दिया),जगत् ढाक दिया अपयश से।
(१८) भुवन में बसंत पैठा
(१९) मुझ स्वर्ग गए की भी पीठ लगे।
(२०) भला हुआ जो मारा गया,बहिन,हमारा कंत।
- यहाँ तक अपभ्रंश के ये उदाहरण नं. २ को छोड़ कर नागरी
प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित श्रीयुत पंडित चंद्रधरजी गुलेरी,बी० ए०,के 'पुरानी हिंदी' नामक लेख से लिए गए हैं।