"मरि जैहै सो, कुँवर!" कह्यो छंदक निःसंशय
"काहू विधि, कोउ घरी मृत्यु आवति है निश्चय।"
देखी दीठि उठाय कुँवर पुनि भीर अगारी,
रोवति पीटति जाति नदी की ओर सिधारी।
"राम नाम है सत्य" सबै हैं रहि रहि टेरत;
सीस नवाये जात, कतहुँ इत उत नहिं हेरत।
पाछे बिलपत जात मृतक के घर के प्रानी,
इष्ट मित्र औ बंधु दुःख सम उर में आनी।
चले जात तिन बीच चार जन पाँव बढ़ाए,
हरे हरे बाँसन की अर्थी काँध उठाए,
जापै काठ समान परो दरसात मृतक नर-
कोख सटी, पथराई आँखें, वदन भयंकर।
'राम नाम' कहि लोग ताहि लै गए नदी पर
जहाँ चिता है सजी राखि जल सों कछु अंतर।
दीनों तापै पारि काठ ऊपर सों डारी
कैसी सुख की नींद इतै सोवत नर नारी!
शीत घाम को क्लेश नाहि पुनि तिन्हें जगावत।
चारि कोन पै, लखौ, आगि हैँ लोग लगावत।
धीरे धीरे दहकि लई सो शव को घेरी;
लाँबी जीभ लफाय माँस चाटत चहुँ फेरी।
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