राजपाट, घर बार छाँड़िहै कुँवर तिहारो
सत्य मार्ग को खोलि कँपैहै यह जग सारो।
रथ के घोड़े चार रहे ज्वाला जो उगिलत
ऋद्धिपाद ते चार कुँवर करि जिन्हें हस्तगत
सारे संशय अंधकार को काटि बहैहै;
अतिशय प्रखर प्रकाश ज्ञान को ताहि सुझहै।
स्वर्णनाभि युत चक्र लख्या जो अति उजियारो
धर्मचक्र सो जाहि फिरैहै कुँवर तिहारी।
औ दुंदभी विशाल कुँवर जो रह्यो बजावत,
जाको घोर निनाद गयो लोकन में यावत्
सो गर्जन गंभीर विमल उपदेशन केरो,
जिन्हैं सुनैहै कुँवर करत देशन में फेरा।
और धौरहर उठत परसो लखि जो नभ ऊपर
बुद्धशास्त्र सो, जो चलि जैहै बढ़त निरन्तर।
गिरत रत्न अनमोल शिखर सोँ जो देखे पुनि
सुर-नर-वांछित तिन्हें धर्म उपदेश लेहु गुनि।
रोवत जो मुख ढाँपि अंत छः पुरुष लखाने
रहे पूर्व प्राचार्य, जात जो अब लौं माने।
दिव्य ज्ञान औ अटल वाद सोँ कुँवर तिहारो
तिन्हैं सुझैहै हेरि हेरि तिनको भ्रम सारो।
महाराज! आनंद करौ, तव सुत की संपति
सकल भुवन के राजपाट सोँ है बढ़िकै अति।
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१२७
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६२)