बोले नृप है खिन्न "विपति मेरे घर आवै,
पै कोऊ नहिं मर्म स्वप्न को मोहिँ बतावै।
ह्वै उदास सब लोग चले सोचत मन में तब
कैसे होय विचार भूप के स्वप्नन को अब।
परे द्वार पै जात वृद्ध ऋषि एक दिखाई
धारे शुचि मृगचर्म, सीस सित जटा बढ़ाई।
कह्यो सबन को टेरि "भूप के ढिग हम आए;
स्वप्नन को फल चला देत हम अबै बताए।
गयो भूप के पास, चित्त दै सुन्यो स्वप्न सब;
कह्यो विनय के सहित "सुनौ, हे महराज! अब!
धन्य धन्य यह धाम जहाँ सोँ निश्चय कढ़िहै
भुवनव्यापिनी प्रभा प्रभाकर सोँ जो बढ़िहै।
सात स्वप्न जो तुम्है, नृपतिवर! परे लखाई,
हैँ वे मंगल सात जगत् मैं जैहैं छाई।
इंद्रध्वजा लखि परी तुम्हें जो पहले भारी
टूक टूक ह्वै गिरति, लुटति पुनि छन में सारी,
सुरन जनायो स्वप्न लाय सो केतुपतन को
नए धर्म को उदय, अंत प्राचीन मतन को।
एक दशा नहिँ रहति होयँ चाहै सुर वा नर;
वाही भाँति विहात कल्प ज्यों बीतत वत्सर।
भूमि कँपावनहार परे लखि जो दस वारण
गुनौ तिन्हें दस शील जिन्हैं अब करिकै धारण
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