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(५९)

ताके पाछे तहँ रहे छाय
चहुँ दिशि सोँ छायापुरुष आय।
लै टूक केतु के करत रोर,
 गे नगरद्वार के पूर्व और।
अब स्वप्न दूसरो है दिखात,
दक्षिण दिशि सौ दस द्विरद जात।
पगभार देत भूतल कँपाय,
निज रजत शुंड इत उत घुमाय।
सबके आगे जो गज अनूप
तापै सुत अपनो लख्यो भूप।
अब स्वप्न तीसरे में लखात
रथ प्रखर एक अति जगमगात;
हैं बँचत जाको तुरग चार
अति प्रबल वेग जिनको अपार।
नथुनन सोँ निकसत धूमखंड,
मुख अनल-फेन उगिलत प्रचंड।
चौथे सपने में चक्र एक
लखि परत फिरत नहिं थमत नेक।
दमकति कंचन की नाभि जाति,
आरन पै मणिद्युति जगमगाति।
हैं लिखे नेमि की पूरि कोर
बहु मंत्र अलौकिक चहूँ ओर।