पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१२३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५८)

यशोधरा दुखभरी परी चरनन पै आई,
रोवति पूछ्यो "नाथ रहे क्यों सुख नहिं पाई?"
कह्यो कुँवर "सुख लहाँ सोइ खटकत मन माहीं।
ह्वैहै याको अंत अवसि, कछु संशय नाहीं।
ह्वैहै बूढ़े, यशोधरे! हम तुम दिन पाई,
नमित-गात, रसरूप-रहित, सब शक्ति गँवाई।
भुजपाशन बँधि रहैं, अधर सोँ अधर मिलाई
घुसिहै काल कराल तऊ निज घात लगाई।
मम उमंग औ तव यौवनश्री हरिहै ऐसे
असित निशा हरि रही अरुण द्युति नग की जैसे।
यहै जानि मम हृदय बीच शंका है छाई।
सोचौं, कैसो है कराल यह काल कसाई!
कैसे यासोँ यौवनरस हम सबै बचाई?"
नाहिं कुँवर को चैन; बैठि सब रैन बिताई।

देख्यो शुद्धोदन महीपाल
वा रैन स्वप्न ह्वै अति विहाल।
लखि परसो इंद्र को ध्वज विशाल,
अति शुभ्र, खचित रविकिरणजाल।
उठि तुरत प्रभंजन प्रबल फेरि
कियो टूक टूक ताको उधेरि।