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गोधूली की बेला काटन के हित ता छन
लागी दासी एक कहानी कहन पुरातन;
जामें चर्चा प्रेम और उड़ते तुरंग की,
तथा दूर देशन की बातें रंग रंग की,
जहाँ बसत हैं पीत वर्ण के लोग लुगाई,
रजनीमुख लखि सिंधु माहिं रवि रहत समाई।
कहत कुँवर "हे चित्रे! तू सब कथा सुनाई
फेरि पवन के गीत आज मेरे मन लाई।
दहु, प्रिये! तुम याको मुक्ताहार उतारी।
अहह! परी है एती विस्तृत वसुधा भारी!
ह्वैहैं ऐसे देश जहाँ रवि बूड़त है नित।
ह्वैहैं कोटिन जीव और जैसे हम सब इत।
सुखी न या संसार बीच है, बहुतेरे,
कछु सहाय करि सकै तिन्हैं यदि पावैं हेरे।
कबहुँ कबहुँ हौं निरखत ही रहि जात प्रभाकर
कढ़ि पूरब सों बढ़त जबै सो स्वर्णमार्ग पर।
सोचौं मैं वे कैसे हैं उदयाचल प्रानी
प्रथम करैं जो ताके किरनन की अगवानी।
अंक बीच बसि कबहुँ कबहुँ, हे प्रिये! तिहारे
अस्त होत रवि ओर रही निरखत मन मारे।
अरुण प्रतीची ओर जान हित छटपटात मन;
सोचौँ कैसे अस्ताचल के बसनहार जन।