रंगभवन सो परत द्वार के भीतर सुन्दर,
सकल जगत् के अचरज को आगार मनोहर।
अगरघटित दीपक सुगंधमय बरत सुहावै,
जासु अमल मृदु ज्याति झरोखन सोँ कढ़ि आवै।
तनी चाँदनी के बूटे चमकैं मनभावन
परे कनक-पर्यङ्क बीच गुलगुले बिछावन।
कनक-कलित पट सुन्दर द्वारन पै लटकाए,
सुमुखिन भीतर लेन हेतु जो जात उठाए।
उज्ज्वलता, मृदुता प्रभात संध्या की सब छिन
छाई तहँ लखि परति, जानि नहिं जात राति दिन।
लगे रहत पकवान विविध, नित कढ़ति बीन धुनि।
कंद मूल फल धर रहत डलियन में चुनि चुनि।
हिम सोँ शीतल किए मधुर रस धरे सजाई।
कठिन युक्ति सोँ बनी रसीली सजी मिठाई।
नित रहति सेवा में लगी तहँ सहचरी बहु कामिनी,
सुकुमारि कारी भौंहवारी, काम की सहगामिनी।
जब नीँद में झपि नयन लागत कुँवर के अलसाय कै,
नियराय बीजन करति कोमल कर-सरोज हिलाय के।
जगि जात जब पुनि तासु मनहिं रिझाय कै बिलमावतीं।
मुसुकाय, रस के गीत मधुरे गाय नाच दिखावतीं।
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