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बोलि मधुरे बैन सेवा में रहैं सब लीन;
सजैं सुख के साज छन छन सुरुचि सहित नवीन।

कुँवर को सुख लखि सुखी ते, मुदित मोद निहारि।
गर्व बस आदेश-पालन को सकैं जिय धारि।
विविध सुख के बीच जीवन याँ बिहात लखाय
पुष्पहास विलास के बिच रमति ज्यों सरि जाय।

मोहनी सी रहति मायाभवन में वा छाय;
रहत भूलो मन, परत दिन राति नाहि जनाय।

लसत गुप्तगृह इन भवनन के भीतर जाई,
मनमोहन हित शिल्प जहाँ सब शक्ति लगाई।
प्रांगण विस्तृत परत प्रथम मर्मर को सुन्दर
ऊपर नीलो गगन, मध्य में लसत विमल सर।
मर्मर के सोपान सुभग चारो दिशि सोहत।
पच्चीकारी रंग रंग की लखि मन मोहत।
जहाँ ग्रीष्म में जातहि ऐसो ताप जात हरि
पसरे निर्मल ज्यों तुषार पै पाँव रहे परि।
नित्य गवाक्षन सों ह्वै कै मृदु रविकर आवैं;
ढारि स्वर्ण की धार रुचिर प्राभा फैलावैं।
जब वा रुचिर विलासभवन के भीतर आवै
प्रखर दिवस हू प्रेम छाकि संध्या ह्वै जावै।