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जब ह्वै गई सब रीति कन्या को पिता तब आय कै
भरि नीर नयनन में कह्यो "हे कुँवर! हित चित लायकै
टुक राखियो यापै दया जो अब तिहारी है भई"।
दुलहिन विदा ह अंत सज्जित राजमंदिर मेँ गई।
रंगभवन विहार
रहत प्रेमहिं प्रेम छायो नवल दंपति माहिँ।
प्रेम ही पै पै भरोसो कियो भूपति नाहिं।
दई आज्ञा रचन की इक प्रेम-कारागार
अति मनोहर दिव्य औ रमणीय रुचिर अपार।
कुँवर को विश्रामवन सो बन्यो अति अभिराम।
नाहिं वसुधा बीच और विचित्र वैसो धाम।
हर्म्य सीमा बीच सोहत हरो भरो पहार;
बहति जाके तरे निर्मल रोहिणी की धार।
उतरि कलकल सहित सरि हिमशैल-तट सोँ आय
जाति है निज भेंट गंगतरंग दिशि लै धाय।
लसत दक्षिण ओर हैं वट सघन, साल, रसाल
झपसि जिनपै रह्यो कुसुमित मालती को जाल।