बोले जगदाराध्य "विदित तब पूरो नाहीं
रह्यो हमैं यह, रही धारणा कछु मन माहीं।
जन्म मरण को चक्र रहत है नाहिँ कबहुँ थिर;
विगत वस्तु औ भाव, भूत जीवन प्रगटत फिर।
आवति अब सुध मोहिं वर्ष बीते हैं लाखन
रह्यों बाघ मैं हिमगिरि के इक विपिन बीच घन।
क्षुधित स्ववर्गिन संग फिरौं मैं बन बन धावत।
कुश के झापस बीच बैठि नित घात लगावत
गैयन पै तिन जे कारे दृग चौँकि उठावैं,
मृत्यु निकट जो चरत चरत चलि आपहि आवै।
कबहुँ तारकित गगन तरे खोजौँ भख उत इत;
सूँघत घूमँ पंथ मनुज-मृग-गंध लहन हित।
संगी मेरे मिलैं मोहिं जो बन के भीतर
अथवा निचुलन सौँ छाए मृदु सरित पुलिन पर
तिनमें बाघिनि एक वर्ग में सब सोँ सुंदरि;
ताहि लहन हित बन के सारे बाघ गए लरि।
चामीकर सो चर्म तासु जापै बहु धारी;
-कछु वैसोई जैसी गोपा की सो सारी।
भयो युद्ध घमसान दंत नख सोँ वा वन में;
घावन साँ बहि चल्यो रक्त तब सबके तन मैं।
खड़ी नीम तर सुंदरि बाघिनि सो सब निरखति
विकट प्रणय हित जासु मच्यो सो क्रूर कांड अति।
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