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प्राचीन आर्यभाषा की भिन्न भिन्न स्थानों की बोलियों को थोड़ा बहुत समेट कर, पर पश्चिमोत्तर की 'भाषा' का ढाँचा आधारवत् रख कर,जिस प्रकार संस्कृत खड़ी हुई उसी प्रकार पीछे से यह काव्यभाषा भी पछाह की बोली (ब्रज से लेकर मारवाड़ और गुजरात तक की) का आधार रख कर,और और बोलियों को भी थोड़ा बहुत समेटती हुई,चली और बहुत दिनों तक केवल अपभ्रंश या भाषा ही कहलाती रही। काव्यभाषा में पच्छिमी बोली की प्रधानता का कारण यह है कि कविता राजाश्रय पा कर हुआ करती थी और इधर हज़ार बारह सौ वर्ष से राजपूतों की बड़ी बड़ी राजधानियाँ राज- पूताने,गुजरात,मालवा,दिल्ली आदि मैं ही रही। हेमचंद्र ने जिस अपभ्रंश का उल्लेख अपने व्याकरण में किया है वह पछाही भाषा है जिसका व्यवहार व्रजमंडल से लेकर राज- पूताने और गुजरात तक था। इस बात को उन्होंने "शेष शौरसेनीवत्" कह कर स्पष्ट कर दिया है। अपभ्रंश के जो दोहे उन्होंने दिए हैं वे पछाही भाषा के हैं। प्रबंधचिंतामणि