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उन्हें एक कटोरा भर खीर भिक्षा में दी । गौतम उसे ले निरंजना के किनारे आए और उन्होंने एक सुंदर घाट पर स्नान किया और वस्त्र बदलकर उस खीर के आँवले बराबर उनचास ग्रास बनाए । गौतम उन ग्रासों को खा वहाँ विश्राम कर सायंकाल के समय बोधिवृक्ष की ओर चले । मार्ग में उन्हें एक श्रोत्रिय ब्राह्मण मिला जो कुशा का बोझ सिर पर लिए सामने से उनकी ओर आ रहा था । श्रोत्रिय ने गौतम को देख कुश के आठ पूले उन्हें अर्पण किए और गौतम ने उन्हें सहर्ष स्वीकार किया। वे कुश के पूलों को लिए हुए बोधिवृक्ष के नीचे आए और वृक्ष की जड़ के चबूतरे पर वृक्ष के मूल के पूर्व और कुश विछाकर वहाँ आसन मारकर यह संकल्प कर पूर्वाभिमुख बैठे- इहासने शुष्यतु वा शरीरं त्वगस्थिमांसं विलयं प्रयाति । अप्राप्य प्रज्ञा बहुजन्मदुर्लभां नैवासनात्कायमिदं चलिष्यति ।।