( ७० ) • है। मैं वही के महाराज शुद्धोदन का पुत्र हूँ।" यह सुन. महाराज विवसार ने कहा- साधु तव सुदृष्टदशनं ते यत्तु तवजन्म वयं पितस्य शिप्याः। अपि च मम क्षमख प्राशयेन अयमपि निमंत्रितुकाम वीतरागः॥ यदि त्वय अनुप्राप्त भोति बोधिः तद म सेति भोति धर्म स्वामिन् । अपि च मम पुरा सुलब्ध लामा मम विजित वससीह यत्स्वयम्भो॥ . . हे भगवन् ! मैं आपके पिता का शिष्य हूँ। मैं आपके दर्शनों से कृतार्थ हुआ। मेरे अपराधों को क्षमा कीजिए । यदि अपको बुद्धत्व प्राप्त हो तो कृपा कर मुझे उसके उपदेश से लाभ पहुँचाइएगा और मैं उसे हर्पपूर्वक स्वीकार करूँगा । आप कृपाकर अवश्य मेरे नगर में पधारिएगा।" यह कह और गौतम की वंदना कर विवसार राज- गृह चले गए। प्रातःकाल होने पर गौतम रामपुत्र रुद्रक के आश्रम को गए । रुद्रक के आचा-कुल में सात सौ.शिष्य अध्ययन करते थे। रुद्रक अपने ब्रह्मचारियों को "नैव संज्ञा ना.संज्ञायतन" सिद्धांत का उप- देश करता था। गौतम ने रुद्रक से कहा-"आचार्य, मैं आपका, अंतेवासी होकर रहना चाहता हूँ।" रामपुत्र रुद्रक ने गौतम को अपने आश्रम में रखकर "नैव संज्ञा ना संज्ञायतन" सिद्धांत की शिक्षा
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