आपका ऐश्वर्या आपके लिये है, मुझे इसका काम नहीं। यह कामना विष के समान है। इसमें अनंत दोष हैं। इसी कामना के वशीभूत हो प्राणी प्रेत-योनि, ति-क-योनि ग्रहण करता है और नरक में पड़ता है। विद्वान् लोग इस.कामना को अना-युष्ट समझ त्याग देते हैं । यह कामभोग क्षणभंगुर है। जैसे वृक्ष के फल झड़.जाते. हैं, वा आकाश के बादल फटकर विलीन हो जाते हैं, वायु कभी स्थिर नहीं होती और सदा चला करती है, ठीक उसी प्रकार काम- सुख स्थायी नहीं है। यह समस्त शुभ कमों का नाशक है। हे भूपाल ! यदि कोई पुरुष समस्त दिव्य और मानुष, ऐहिक और आमुष्मिक सुखों को प्राप्त कर ले तो भी उसकी तृप्ति कभी नहीं हो सकती। कितना ही विद्वान् और ज्ञानवान् क्यों न हो, यदि वह विदुभिर्विहिता पाप्यनार्य्यकामाः, पहिति मया पक्यखेटपिंडस् । कामद्रुमफला क्या पतवि, वय इव अभबलाहका व्रजति। . अधु वचपलगानिमाया था, विकरण सर्वशुभस्य धंपनीयाः ।। काम घरणीपाल ! ये थ दिव्या, वय अपि मानुप काम ये मणीता' स कुनर लभेति सर्वकामां, न च सो तृप्ति लभेत भूयस्पः । काम महिपाल सेवमान, परमनु न विवाति कोटिसंस्कृतस्य। लवणणस यथा हि पित्या, भूय तृषु बर्द्धति कामसेवमाने । ये तु धरणीपाल शांतदाता, भार्थ्यानाश्रवधर्मपूर्णसंज्ञा, . प्राविटुप तृप्त ये सुदृप्ताः, न पुन'कामगोषु काविच प्तिः। अपिधरणीपाल पश्व कार्य, अघ्र थमसार कुदुःखयंप्रमेतत् । नपभि व्रणमुखै सदा अवंत, न मम नराधिप! काम छंदरागैः । नहमपि विपुलान विजमकामान तथापि च स्त्रिसहस्रान्दर्शनीयान् । भनभिरनुभवे निर्गदोह, परमशिवां घरबोधिमाप्तुकामः । ।
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