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( ६७ ) यह राजगृह नगेरे जिसे प्राचीन काल में गिरिवूज कहते थे, पाँच 'पर्वतों के बीच में वसा था। इसे मगध के महाराज विवसार ने वसाया था और उस समय यह मगध की राजधानी थी। इसी नगर के पास रामपुत्र रुद्रक नाम का एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान रहता था जिसकी विद्या और आचरण की प्रशंसा सुन गौतम वैशाली से राजगृह गए थे। यहाँ पहुँचकर वे पांडव पर्वत पर ठहरे और अपना भिक्षापात्र ले एक वार राजगृह में मिक्षाग्रह- णार्थ गए । नगर के लोगों ने उनकी अवस्था देखी और उनकी चर्चा महाराज विंवसार के दरबार में चलाई। विवसार इन राजलक्षण- युक्त भिक्षुक को देखने के लिये बहुत उत्सुक हुए और उन्होंने उन्हें अपने राजमहल में भिक्षाग्रहण करने के लिये निमंत्रित किया। गौतम महाराज विंवसार का निमंत्रण स्वीकार कर राज- महल में गए और भिक्षाग्रहण कर अपने अनम पर आए। महाराज विवसार रात के समय पर्वत पर आए और गौतम के चरणों की वदना कर उनसे विनयपूर्वक कहा-"मिक्षो, आपका यह रूप और यह अवस्था भिक्षाग्रहण करने योग्य नहीं है। आप कृपा कर मेरे इस राज्य को ग्रहण कर यह राज्य श्वयं भोग कीजिए। आपकी अवस्था वन वन घूमने की नहीं है।" राजा की इन बातों को सुन गौतमबुद्ध ने कहा-"महाराज !* आपका कल्याण हो,

  • प्रभगति गिरि योधिसत्यः श्लणं, प्रकुटिलमे मयको हितानुकंपी,

काम विपसमा अनंवदोपा, नरकमपातन विग्योनी, .