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कालाम नामक रहता था। उसके आचार्यकुल में तीन सौ ब्रह्मचारी विद्याध्यन करते थे । महात्मा गौतम आराड के ब्रह्माश्रम में गए और उन्होंने आचार्य आराड कालाम से ब्रह्मचर्याश्रम ग्रहण किया और उससे 'अकिंचनायतन' * धर्म की शिक्षा प्राप्त की। पर इतने से गौतमबुद्ध का संतोप न हुआ। वे अपने मन में कहने लगे-"मैंने वेदों को भी पढ़ा है। मुम में वीर्य और स्मृति भी है। मुझे समाधि की क्रिया भी आती है और मेरे पास प्रज्ञा भी है जिसके प्रभाव से मैं अप्रमत्त होकर विहार कर सकता हूँ। पर क्या इतने मात्र से मनुष्य अपने समस्त क्लेशों को ध्वस्त कर सकता है ?" यह विचार गौतम आचार्या आराड कालाम के पास जाकर बोले- आचार्य ! क्या आपने अब तक धर्म का इतना ही मात्र साक्षात् किया है ?" आचार्य ने कहा--"हाँ, गौतम मैंने तो इतना ही साक्षात् किया है।" गौतम ने कहा-"इतना तो मैं भी जानता . हूँ और मैंने भी साक्षात् किया है। प्राचार्या यह सुन बहुत प्रसन्न हो बोले- गौतम'! बड़े हर्ष की बात है कि आपने भी उसी धर्म को साक्षात् किया जिसे मैंने किया है । अतः आइए, हम और आप दोनों मिलकर परस्पर प्रेमपूर्वक इंन शिष्यों को धर्म की शिक्षा दें।" पर गौतम, जो कुछ और आगे जाने के लिये उत्पन्न हुए थे, 'ठहरकर ब्रह्मचारियों को शिक्षा देने पर राजी न हुए और आचार्या से बिदा माँग राजगृह की ओर बढ़े। ........

  • संज्ञा और संज्ञी दोनों जिसमें हों, इस प्रकार का ज्ञान अर्थात

कुछ नहीं है।