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तो गोपा घर में अपने पर्येक पर अपने नवजात पुत्र को अपनी छाती पर लिए हुए घोर निद्रा में निमग्न बेसुध पड़ी सो रही है । सिद्धार्थ उसके पय्य के के पास तक गए और समीप था कि वे अपनी प्रिय रानी यशोधरा को जगा उससे अंतिम भेंट कर उसे गृहत्याग की सूचना दें और अपने पुत्र राहुल को एक बार अपनी गोद में ले पुत्र के सुख का अनुभव करें, पर उन्होंने अपने मनो- वेग को रोका और वे वहाँ से लौटे। किवाड़ के पास ठहरकर उन्होंने फिर अपने मन में कहा कि "नहीं, ऐसा करना मेरे त्याग में घोर अड़चन उपस्थित करेगा।" इस प्रकार के राग और विराग के झगड़े में वे वहुत देर तक पड़े रहे और अंत को वे उसका जगाना उचित न समझ अंतःपुर से निकले और प्रासाद के द्वार पर आए जहाँ उनका विश्वासपान सारथी छंदक कंठक को लिए उन की प्रतीक्षा कर रहा था। सिद्धार्थ कंठक पर सवार हुए और आधी रात के समय सुनसान नगर से होते हुए नगर के पूर्व द्वार से यह कहकर बाहर निकले- स्थानासनं शयनचंक्रमणं . नकरिष्येहं कपिलवस्तुमुखं । . यावन्न लब्धं वरवोधि मया .. अजरामरं पदवरं ह्यमत।