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होऊँगा, किंतु अनंत संसार को उस अंतरक्षिस्थ अजर अमर मोक्ष में स्थापित करूँगा। मैं गृह त्याग अवश्य करूँगा और तेरे सामने यह प्रतिज्ञा करता हूँ- वज्यशनिपरशुशक्तिशराश्मवर्षे - विद्युत्प्रभानज्वलितं क्वथितं च लोहं ।

. आदीवाशैलशिखिरा प्रपतेयुमूर्ध्नि

...... नोवा अहं पुनर्जनेय गृहामिलापं । '

मेरे सिर पर वजू भले ही गिरे, विजली, परशु, शक्ति, शर

तथा पत्थर की वृष्टि भले ही हो, विजली की तरह दहकता लोहा भले ही सिर पर गिरे अथवा दहकता हुआ ज्वालामुखी पर्वत सिर पर भले ही आ पड़े, पर मेरे हृदय में अब फिर गृहानम को अमि- लापां नहीं होगी। ... . .. -जब छेदक ने कुमार को यह घोर प्रतिज्ञा सुनी और देखा कि कुमार सममाने से नहीं मानते और अपने हठ पर अड़े हुए हैं, तब उसे निश्चय हो गया कि अब कुमार अवश्य कपिलवस्तु परि- त्याग करेंगे। वह कुमार के पास से अश्वशाला की ओर कंठक को लाने के लिये गया। छंदक के जाने पर कुमार पर राग ने आक्र- मण किया और वे चुपके चुपके दबे पाँव अंतःपुर में घुसे। अंत:- पुर में सब दास दासियाँ जो जहाँ थीं, वह वहीं पड़ी खर्राटे भर रही थीं। सारे घर में निद्रा-देवी का अखिल साम्राज्य था। प्रसूतिका गृह का द्वार, जिसमें गोपा थी, खुला हुआ था। दीपक जलता था, पर सब के सब पड़े सोते थे। वे द्वार पर पहुँचे और बाहर से देखा