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( ३० ) . सिद्धार्थकुमार शिक्षा ग्रहण के समय अन्य विद्यार्थियों की तरह शुष्क विवाद में कभी प्रवृत्त नहीं होते थे । वे 'श्रोतव्यं, मंतव्यं निदिध्यसितव्यं के उपदेश के अनुसार गुरु के प्रत्येक पाठ को एकांत में बैठकर मनन करते थे और मनन करने पर उनका निदि- ध्यासन करते थे। वे समझते थे कि जिन विशालह्रदय महर्पियों का यह उपदेश है कि 'यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्रयोपास्यानि नो इतराणि ।' वे कभी किसी को लकीर का फकीर बनने के लिये बाध्य नहीं कर सकते थे। उन्होंने सांख्य के 'अथ त्रिविधिदुःखादयतनि- वृत्तिरत्यंत पुरुपार्थः के उपदेश को अपने अंतःकरण में धारण कर प्रतिज्ञा की कि यदि हो सका तो मैं इन दुःखों से, जिनसे समस्त जगन् के प्राणी पीड़ित हो रहे हैं, अत्यंत निवृत्त होने का मार्ग हुँदंगा; और यदि ऐसा मार्ग मुझे मिल गया तो मैं उसे अकेले ही जानकर न 'रह जाऊँगा, किंतु उस अमूल्य घात को सारी सृष्टि के सामने प्रकट कर दूंगा। इस प्रकार अर्थात् विद्या को मनन करते हुए सिद्धार्थ- कुमार ने ऋपि आश्रम में अपना ब्रह्मचाश्रम बिताया। स ब्रह्मचारी गुरुगेहवासी, तत्का-कारी विहितान्नभोजी, सागं प्रभातं च हुताशसेवी, व्रतेम वेदां च समध्यगीष्ट ।