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चौड़ी सड़कों के किनारे अच्छे अच्छे मकान और अच्छे अच्छे हाट बाजार थे। नगर के बीच में राजमहल था और नगर से बाहर जाने के लिये चार फाटक थे, जिन पर सदा रखवाले रहा करते थे।

इसी नगर में ईसा के जन्म से ५५७ वर्ष पूर्व महाराज सिंहहनु के ज्येष्ठ पुत्र महाराज शुद्धोदन राज्य करते थे। ये अत्यंत चरित्रवान् , प्रजावत्सल, धर्मनिष्ठ और शांत प्रकृति के थे। यद्यपि इनकी माया और प्रजावती दो रानियाँ थीं, पर इनके कोई संतान न थी। प्राय॑ ऋषियों का कथन है कि मनुष्य तीन ऋण लेकर संसार में जन्म लेता है-ऋपिऋण, देवऋण और पितृऋण । विद्याध्यन कर वह ऋपियों के ऋण से मुक्त होता है और यज्ञ कर वह देव ऋण से छुटकारा पाता है । पर पितृऋण उस पर तव तक बना रहता है जब तक कि वह संतान का मुहँ न देखे। इसी लिये यह जनश्रुति चल पड़ी है "अपुत्रस्यगतिर्नास्ति स्वर्गे नैव च नैव च ।" अर्थात् अपुत्र की स्वर्ग में कभी गति नहीं है। महाराज शुद्धोदन इसी चिंता से सदा व्याकुल रहते थे। समस्त धन-धान्य ऐश्वर्या सम्पन्न होने पर भी उन्हें पुत्र न होने से चारों ओर अँधेरा देख पड़ता था। महाराज शुद्धोदन की अवस्था चालीस के ऊपर हो चुकी थी और कोई संतान न हुई। इस दुःख से उनकी सारी प्रजा और समस्त शाक्यवंश दुःखी थे।

गावो हिरण्यं बहुशस्य मालिनी

वसुंधरा चित्रपदं निकेतनम् ।