( १५ ) पंच प्रकार अभिज्ञा तथा चतुर्विधि ध्यान लाभ कर चुके थे। एक दिन की बात है कि उस गुहा के पास मनुष्य की गंध पाकर एक सिंह पाया और अपने हाथों से उस पत्थर को जो गुहा के द्वार पर पर रक्खा था, हटाने लगा। राजपि कोलि ने जो वहाँ अपने आश्रम में फिर रहे थे, सिंह को देख उस पर वाण चलाया। चाण के लगने से सिंह मर गया। तब वे उसके पास गए और उन्होंने कुतूहलवश गुहा के द्वार के पत्थर को हटाया तो उसमें से एक सुंदर कन्या निकलकर बाहर आई । राजर्षि उसके रूप लावण्य को देख उस पर आसक्त हो गए और उससे उसके विषय में पूछ ताछ करने लगे। अमृता ने उनके पूछने पर अपना सारा समाचार कह सुनाया । जब कोलि जी को यह मालूम हुआ कि अमृता शाक्यवंश की राजकन्या है तो उन्होंने उससे गंधर्व विवाह कर लिया। कोलि ऋषि और अमृता से उस आश्रम में वत्तीस पुत्र उत्पन्न हुए। ऋपि ने उन सब का संस्कार किया और वे सब बड़े रूपवान्, जटा-मृगचर्मधारी, ब्रह्मचारी वन ऋपि-आश्रम में रहने लगे। अमृता ने एक दिन अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि "तुम लोग कपिलवस्तु जाओ। वहाँ तुम्हारे मामा रहते हैं।" लड़कों ने माता पिता को आज्ञा ले उन्हें प्रणाम कर कपिल- वस्तु की राह ली और थोड़े दिनों में वे वहाँ जा पहुँचे । वहाँ शाक्यगण उन ब्रह्मचारियों को आकस्मिक नगर में घुसते देख - कोलि मामक प्रोपधि खाने से धंगे हो गए थे। उन्होंने प्रवृवा को भी फुष्ट रोग से पीड़ित देख यही सोपधि सिखाई थी।.
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